बुधवार, 16 दिसंबर 2020

वैज्ञानिक समय मान

श्री जनार्दन ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र 

विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र (ऋषि मुनियो का अनुसंधान )


■ क्रति = सैकन्ड का  34000 वाँ भाग

■ 1 त्रुति = सैकन्ड का 300 वाँ भाग

■ 2 त्रुति = 1 लव ,

■ 1 लव = 1 क्षण

■ 30 क्षण = 1 विपल ,

■ 60 विपल = 1 पल

■ 60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट ) ,

■ 2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा )

■ 24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार) ,

■ 7 दिवस = 1 सप्ताह

■ 4 सप्ताह = 1 माह ,

■ 2 माह = 1 ऋतू

■ 6 ऋतू = 1 वर्ष ,

■ 100 वर्ष = 1 शताब्दी

■ 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी ,

■ 432 सहस्राब्दी = 1 युग

■ 2 युग = 1 द्वापर युग ,

■ 3 युग = 1 त्रैता युग ,

■ 4 युग = सतयुग

■ सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग

■ 76 महायुग = मनवन्तर ,

■ 1000 महायुग = 1 कल्प

■ 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )

■ 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प ।(देवों का अन्त और जन्म )

■ महाकाल = 730 कल्प ।(ब्राह्मा का अन्त और जन्म )


सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र यही है। जो हमारे देश भारत में बना। ये हमारा भारत जिस पर हमको गर्व है l

दो लिंग : नर और नारी ।

दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।

दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।

दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन।


तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।

तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।

तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।

तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।

तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु।

तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।

तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।

तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव।

तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी।

तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।

तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।

तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।

तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।


चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।

चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।

चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।

चार निति : साम, दाम, दंड, भेद।

चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।

चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।

चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।

चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात।

चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।

चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।

चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।

चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।

चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।

चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।

चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।

चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।

चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।


पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।

पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।

पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।

पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।

पाँच  उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।

पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।

पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।

पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।

पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।

पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।

पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।

पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (प्रयागराज), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।

पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।

पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।


छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।

छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।

छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।

छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच),  मोह, आलस्य।


सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।

सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।

सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।

सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।

सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।

सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।

सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।

सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।

सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।

सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।

सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।

सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।

सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।

सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।


आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।

आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।

आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।

आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।

आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।


नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।

नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।

नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।

नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।


दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।

दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।

दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।

दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।

दस सति : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।


उक्त जानकारी शास्त्रोक्त 📚 आधार पर... हैं ।

यह आपको पसंद आया हो तो इस महान भारतीय सनातन का ज्ञान भण्डार अपने बच्चों को समझाएं ।

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आचार्य प्रभात कुमार प्रिंस

 सिद्धान्त ज्योतिषाचार्य 

मो॰:- +919155657892

सोमवार, 14 दिसंबर 2020

मुहूर्त

 हिन्दू धर्म में मुहूर्त एक समय मापन इकाई है। वर्तमान हिन्दी भाषा में इस शब्द को किसी कार्य को आरम्भ करने की शुभ घड़ी को कहने लगे हैं।

एक मुहूर्त बराबर होता है दो घड़ी के, या लगभग 48 मिनट के.

अमृत/जीव मुहूर्त और ब्रह्म मुहूर्त बहुत श्रेष्ठ होते हैं ; ब्रह्म मुहूर्त सूर्योदय से पच्चीस नाड़ियां पूर्व, यानि लगभग दो घंटे पूर्व होता है। यह समय योग साधना और ध्यान लगाने के लिये सर्वोत्तम कहा गया है।

मुहूर्तों के नाम

क्रमांकसमयमुहूर्तगुण
०६:०० - ०६:४८रुद्रअशुभ
०६:४८ - ०७:३६आहिअशुभ
०७:३६ - ०८:२४मित्रशुभ
०८:२४ - ०९:१२पितॄअशुभ
०९:१२ - १०:००वसुशुभ
१०:०० - १०:४८वाराहशुभ
१०:४८ - ११:३६विश्वेदेवाशुभ
११:३६ - १२:२४विधिशुभ - सोमवार और शुक्रवार को छोड़कर
१२:२४ - १३:१२सतमुखीशुभ
१०१३:१२ - १४:००पुरुहूतअशुभ
१११४:०० - १४:४८वाहिनीअशुभ
१२१४:४८ - १५:३६नक्तनकराअशुभ
१३१५:३६ - १६:२४वरुणशुभ
१४१६:२४ - १७:१२अर्यमाशुभ - रविवार को छोड़कर
१५१७:१२ - १८:००भगअशुभ
१६१८:०० - १८:४८गिरीशअशुभ
१७१८:४८ - १९:३६अजपादअशुभ
१८१९:३६ - २०:२४अहिर बुध्न्यशुभ
१९२०:२४ - २१:१२पुष्यशुभ
२०२१:१२ - २२:००अश्विनीशुभ
२१२२:०० - २२:४८यमअशुभ
२२२२:४८ - २३:३६अग्निशुभ
२३२३:३६ - २४:२४विधातॄशुभ
२४२४:२४ - ०१:१२क्ण्डशुभ
२५०१:१२ - ०२:००अदितिशुभ
२६०२:०० - ०२:४८जीव/अमृतबहुत शुभ
२७०२:४८ - ०३:३६विष्णुशुभ
२८०३:३६ - ०४:२४युमिगद्युतिशुभ
२९०४:२४ - ०५:१२ब्रह्मबहुत शुभ
३००५:१२ - ०६:००समुद्रम्शुभ

तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार १५ मुहुर्तों के नाम इस प्रकार गिनाए गये हैं।

(१) संज्ञानं (२) विज्ञानं (३) प्रज्ञानं (४) जानद् (५) अभिजानत्
(६) संकल्पमानं (७) प्रकल्पमानम् (८) उपकल्पमानम् (९) उपकॢप्तं (१०) कॢप्तम्
(११) श्रेयो (१२) वसीय (१३) आयत् (१४) संभूतं (१५) भूतम् ।
चित्रः केतुः प्रभानाभान्त् संभान् ।
ज्योतिष्मंस्-तेजस्वानातपंस्-तपन्न्-अभितपन् ।
रोचनो रोचमानः शोभनः शोभमानः कल्याणः ।
दर्शा दृष्टा दर्शता विष्वरूपा सुर्दर्शना ।
आप्य्-आयमाणाप्यायमानाप्याया सु-नृतेरा ।
आपूर्यमाणा पूर्यमाणा पूर्यन्ती पूर्णा पौर्णमासी ।
दाता प्रदाताऽनन्दो मोदः प्रमोदः ॥ १०.१.१ ॥

शतपथ ब्राह्मण में एक दिन के पन्द्रहवें भाग (१/१५) को 'मुहूर्त' की संज्ञा दी गयी है।

शनिवार, 12 दिसंबर 2020

विष योग

श्री जनार्दन ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र 

कुंडली में विष योग बनता है तो आपके ऊपर आ सकती है ये भयंकर मुसीबत


कुंडली में शुभ और अशुभ योग का बहुत महत्‍व है। यदि कुंडली में कोई शुभ योग बन रहा हो तो जातक को जीवन में सुख और समृद्धि मिलती है लेकिल अगर कोई अशुभ योग बन रहा हो तो जातक के जीवन में अनके परेशानियां और कठिनाईयां आती हैं।

ज्‍योतिष शास्‍त्र में कुंडली में शुभ और अशुभ योग का बड़ा महत्‍व है। मनुष्‍य का व्‍यवहार, कार्य और उसका जीवन कुंडली के शुभ और अशुभ योगों से प्रभावित होता है।

कुंडली में शुभ योग होने पर जातक को अपने कार्यों में सफलता मिलती है तो वहीं अशुभ योग के कारण उसे अनेक प्रकार के दुखों का सामना करना पड़ता है। कुंडली में बनने वाले अशुभ योगों में से एक है ‘विष योग’। इसको पुनर्फू योग भी कहते हैं।

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कब बनता है  -:

शनि और चंद्रमा की जब युति होती है तब यह योग बनता है। कुंडली में विष योग शनि और चंद्रमा के कारण बनता है। चंद्रमा के लग्‍न स्‍थान में एवं चन्द्रमा पर शनि की 3,7 अथवा 10वें घर से दृष्टि होने की स्थिति में इस योग का निर्माण होता है।


शनि पुष्य नक्षत्र

कर्क राशि में शनि पुष्य नक्षत्र में हो और चन्द्रमा मकर राशि में श्रवण नक्षत्र का रहे अथवा चन्द्र और शनि विपरीत स्थिति में हों और दोनों अपने-अपने स्थान से एक दूसरे को देख रहे हों तो तब भी विष योग की स्थिति बन जाती है।

यदि कुण्डली में आठवें स्थान पर राहु मौजूद हो और शनि (मेष, कर्क, सिंह, वृश्चिक) लग्न में हो तो इस योग का निर्माण होता है।


क्‍या आती हैं समस्‍याएं

जन्मकुंडली में इस योग के कारण व्यक्ति का मन दुखी रहता है, परिजनों के निकट होने पर भी उसे अकेलापन महसूस होता है, जीवन में सच्चे प्रेम की कमी रहती है, माता प्‍यार चाहकर भी नहीं मिल पाता या अपनी ही कमी के कारण वह ले नहीं पाता है। जातक गहरी निराशा में डूबा रहता है, मन कुंठित रहता है। माता के सुख में कमी के कारण व्यक्ति उदास रहता है।

कुंडली में अगर विष योग बन रहा है तो उसे व्‍यक्‍ति को मृत्‍यु, डर, दुख, अपयश, रोग, गरीबी, आलस और कर्ज झेलना पड़ता है। इस योग से ग्रस्‍त व्‍यक्‍ति के मन में नकारात्‍मक विचार रहते हैं और उसके काम बनते-बनते बिगड़ने लगते हैं।


पूर्ण विष योग

पूर्ण विष योग माता को भी पीड़ित करता है। शनि तथा चन्द्रमा का किसी भी प्रकार से सम्बन्ध माता की आयु को भी कम करता है अर्थात् माता का पीड़ित होना या माता से पीड़ित होना निश्चित है। यह योग मृत्यु, डर, दुख, अपमान, दरिद्रता,  विपत्ति, आलस और कर्ज जैसे अशुभ योग उत्पन्न करता है।


क्‍या हैं उपाय 

विष योग के नकारात्‍मक प्रभावों का कम करने के लिए भगवान शिव की आराधना करें। नियमित ‘ऊँ नमः शिवाय’ मन्त्र का सुबह-शाम कम से कम 108 बार करने से लाभ होगा। ‘महा म्रंत्युन्जय मन्त्र’ का जाप भी लाभकारी है। संकटमोचक हनुमान जी की उपासना करें और शनिवार के दिन शनि देव का संध्या समय तेलाभिषेक करने से भी पीड़ा कम हो जाती है।


शनि देव की कृपा पाने के लिए पहने Shani Yantra Locket


अगर आपके जीवन में कोई कष्‍ट है या आपके बनते-बनते काम बिगड़ जाते हैं तो आपकी कुंडली में कोई दोष हो सकता है। कुंडली में किसी अशुभ योग के कारण भी जीवन में परेशानियां उत्‍पन्‍न होती हैं। इसलिए इनका उपाय करना बहुत जरूरी होता है।


♧ किसी भी जातक की कुंडली में विष-योग का निर्माण शनि और चन्द्रमा के कारण बनता है। शनि और चन्द्र की जब युति (दो कारकों का जुड़ा होना) होती है तब विष-योग का निर्माण होता है। कुंडली में विष-योग उत्पन्न होने के कारण लग्न में अगर चन्द्रमा है और चन्द्रमा पर शनि की 3, 7 अथवा 10वें घर से दृष्टि होने पर भी इस योग का निर्माण होता है।

अगर आप भी अपनी कुंडली के बारे में परामर्श लेना चाहते हैं तो इस नंबर पर हमसे संपर्क करें -: +919155657892

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किसी भी जानकारी के लिए Call करें : +919155657892

आचार्य प्रभात कुमार प्रिंस

 सिद्धान्त ज्योतिषाचार्य 


गुरुवार, 10 दिसंबर 2020

रोग और उपचार

 

ASTROLOGER PRABHAT KUMAR PRINCE 

Mo:- +919155657892





 

नक्षत्र से रोग विचार तथा उपाय

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हमारे ज्योतिष शास्त्र में नक्षत्र के अनुसार रोगों का वर्णन किया गया है। व्यक्ति के कुंडली में नक्षत्र अनुसार रोगों का विवरण निम्नानुसार है। आपके कुंडली में नक्षत्र के अनुसार परिणाम आप देख सकते है।
अश्विनी नक्षत्र👉 जातक को वायुपीड़ा, ज्वर, मतिभ्रम आदि से कष्ट.
उपाय : दान पुण्य, दिन दुखियों की सेवा से लाभ होता है।
भरणी नक्षत्र👉 जातक को शीत के कारण कम्पन, ज्वर, देह पीड़ा से कष्ट, देह में दुर्बलता, आलस्य व कार्य क्षमता का अभाव।
उपाय : गरीबोंकी सेवा करे लाभ होगा।
कृतिका नक्षत्र👉 जातक आँखों सम्बंधित बीमारी, चक्कर आना, जलन, निद्रा भंग, गठिया घुटने का दर्द, ह्रदय रोग, घुस्सा आदि।
उपाय : मन्त्र जप, हवन से लाभ।
रोहिणी नक्षत्र👉 ज्वर, सिर या बगल में दर्द, चित्य में अधीरता।
उपाय : चिर चिटे की जड़ भुजा में बांधने से मन को शांति मिलती है।
मृगशिरा नक्षत्र👉 जातक को जुकाम, खांसी, नजला, से कष्ट।
उपाय : पूर्णिमा का व्रत करे लाभ होगा।
आद्रा नक्षत्र👉 जातक को अनिद्रा, सिर में चक्कर आना, अधासीरी का दर्द, पैर, पीठ में पीड़ा।
उपाय : भगवान शिव की आराधना करे, सोमवार का व्रत करे, पीपल की जड़ दाहिनी भुजा में बांधे लाभ होगा।
पुनर्वसु नक्षत्र👉 जातक सिर या कमर में दर्द से कष्ट।
उपाय: रविवार को पुष्य नक्षत्र में आक का पौधा की जड़ अपनी भुजा मर बांधने से लाभ होगा।
पुष्प नक्षत्र👉 जातक निरोगी व स्वस्थ होता है। कभी तीव्र ज्वर से दर्द परेशानी होती है, कुशा की जड़ भुजा में बांधने से तथा पुष्प नक्षत्र में दान पुण्य करने से लाभ होता है।
अश्लेश नक्षत्र👉 जातक का दुर्बल देह प्राय: रोग ग्रस्त बना रहता है, देह में सभी अंग में पीड़ा, विष प्रभाव या प्रदुषण के कारण कष्ट।
उपाय : नागपंचमी का पूजन करे, पटोल की जड़ बांधने से लाभ होता है।
मघा नक्षत्र👉 जातक को अर्धसीरी या अर्धांग पीड़ा, भुत पिचाश से बाधा।
उपाय : कुष्ठ रोगी की सेवा करे, गरीबोंको मिष्ठान खिलाये।
पूर्व फाल्गुनी👉 जातक को बुखार,खांसी, नजला, जुकाम, पसली चलना, वायु विकार से कष्ट।
उपाय : पटोल या आक की जड़ बाजु में बांधे, नवरात्रों में देवी माँ की उपासना करे।
उत्तर फाल्गुनी👉 जातक को ज्वर ताप, सिर व बगल में दर्द, कभी बदन में पीड़ा या जकडन।
उपाय : पटोल या आक की जड़ बाजु में बांधे, ब्राह्मण को भोजन कराये।
हस्त नक्षत्र👉 जातको पेट दर्द, पेट में अफारा, पसीने से दुर्गन्ध, बदन में वात पीड़ा आक या जावित्री की जड़ भुजा में बांधने से लाभ होगा।
चित्रा नक्षत्र👉 जातक जटिल या विषम रोगों से कष्ट पता है। रोग का कारण बहुधा समज पाना कठिन होता है। फोड़े फुंसी सुजन या चोट से कष्ट होता है।
उपाय : असंगध की जड़ भुजा में बांधने से लाभ होता है, तिल चावल जौ से हवन करे।
स्वाति नक्षत्र👉 वाट पीड़ा से कष्ट, पेट में गैस, गठिया, जकडन से कष्ट।
उपाय : गौ तथा ब्राह्मणों की सेवा करे, जावित्री की जड़ भुजा में बांधे।
विशाखा नक्षत्र👉 जातक को सर्वांग पीड़ा से दुःख, कभी फोड़े होने से पीड़ा।
उपाय : गूंजा की जड़ भुजा भुजा पर बांधना, सुगन्धित वास्तु से हवन करना लाभ दायक होता है।
अनुराधा नक्षत्र👉 जातक को ज्वर ताप, सिर दर्द, बदन दर्द, जलन, रोगों से कष्ट,
उपाय : चमेली, मोतिया, गुलाब की जड़ भुजा में बांधना से लाभ।
जेष्ठा नक्षत्र👉 जातक को पित्त बड़ने से कष्ट,देह में कम्पन, चित्त में व्याकुलता, एकाग्रता में कमी, कम में मन नहीं लगना।
उपाय : चिरचिटे की जड़ भुजा में बांधने से लाभ। ब्राह्मण को दूध से बनी मिठाई खिलाये।
मूल नक्षत्र👉 जातक को सन्निपात ज्वर, हाथ पैरों का ठंडा पड़ना, रक्तचाप मंद, पेट गले में दर्द अक्सर रोगग्रस्त रहना।
उपाय : 32 कुओं (नालों) के पानी से स्नान तथा दान पुण्य से लाभ होगा।
पूर्वाषाढ़ नक्षत्र👉 जातक को देह में कम्पन, सिर दर्द तथा सर्वांग में पीड़ा। सफ़ेद चन्दन का लेप, आवास कक्ष में सुगन्धित पुष्प से सजाये। कपास की जड़ भुजा में बांधने से लाभ।
उत्तराषाढ़ा नक्षत्र👉 जातक संधि वात, गठिया, वात शूल या कटी पीड़ा से कष्ट, कभी असहय वेदना।
उपाय : कपास की जड़ भुजा में बांधे, ब्राह्मणों को भोज कराये लाभ होगा।
श्रवन नक्षत्र👉 जातक अतिसार, दस्त, देह पीड़ा ज्वर से कष्ट, दाद, खाज खुजली जैसे चर्म रोग कुष्ठ, पित्त, मवाद बनना, संधि वात, क्षय रोग से पीड़ा।
उपाय : अपामार्ग की जड़ भुजा में बांधने से रोग का शमन होता है।
धनिष्ठा नक्षत्र👉 जातक मूत्र रोग, खुनी दस्त, पैर में चोट, सुखी खांसी, बलगम, अंग भंग, सुजन, फोड़े या लंगड़े पण से कष्ट।
उपाय : भगवान मारुती की आराधना करे ,गुड चने का दान करे।
शतभिषा नक्षत्र👉 जातक जलमय, सन्निपात, ज्वर, वातपीड़ा, बुखार से कष्ट। अनिंद्रा, छाती पर सुजन, ह्रदय की अनियमित धड़कन, पिंडली में दर्द से कष्ट।
उपाय : यज्ञ, हवन, दान, पुण्य तथा ब्राह्मणों को मिठाई खिलानेसे लाभ होगा।
पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र👉 जातक को उल्टी या वमन, देह पीड़ा, बैचेनी, ह्रदय रोग, टकने की सुजन, आंतो का रोग से कष्ट होता है।
उपाय : भृंगराज की जड़ भुजा में भुजा पर बांधे, तिल का दान करने से लाभ होता है।
उत्तराभाद्रपद नक्षत्र👉 जातक अतिसार, वातपीड़ा, पीलिया, गठिया, संधिवात, उदरवायु, पाव सुन्न पड़ना से कष्ट हो सकता है।
उपाय : पीपल की जड़ भुजा पर बांधने से तथा ब्राह्मणों को मिठाई खिलाये लाभ होगा।
रेवती नक्षत्र👉 जातक को ज्वर, वाट पीड़ा, मति भ्रम, उदार विकार, मादक द्रव्य सेवन से उत्पन्न रोग किडनी के रोग, बहरापन, या कण के रोग पाव की अस्थि, मासपेशी खिचाव से कष्ट।
उपाय : पीपल की जड़ भुजा में बांधे लाभ होगा ।
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अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें ।

आचार्य प्रभात कुमार प्रिंस

 सिद्धान्त ज्योतिषाचार्य 

Whatsapp no:- +919155657892


आचार्य प्रभात :- भस्म क्यो लगाते है

 शरीर पर भस्म क्यों लगाते हैं भगवान शिव

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हिंदू धर्म में शिवजी की बड़ी महिमा हैं। शिवजी का न आदि है ना ही अंत। शास्त्रों में शिवजी के स्वरूप के संबंध कई महत्वपूर्ण बातें बताई गई हैं। इनका स्वरूप सभी देवी-देवताओं से बिल्कुल भिन्न है। जहां सभी देवी-देवता दिव्य आभूषण और वस्त्रादि धारण करते हैं वहीं शिवजी ऐसा कुछ भी धारण नहीं करते, वे शरीर पर भस्म रमाते हैं, उनके आभूषण भी विचित्र है। शिवजी शरीर पर भस्म क्यों रमाते हैं? इस संबंध में धार्मिक मान्यता यह है कि शिव को मृत्यु का स्वामी माना गया है और शिवजी शव के जलने के बाद बची भस्म को अपने शरीर पर धारण करते हैं। इस प्रकार शिवजी भस्म लगाकर हमें यह संदेश देते हैं कि यह हमारा यह शरीर नश्वर है और एक दिन इसी भस्म की तरह मिट्टी में विलिन हो जाएगा। अत: हमें इस नश्वर शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए। कोई व्यक्ति कितना भी सुंदर क्यों न हो, मृत्यु के बाद उसका शरीर इसी तरह भस्म बन जाएगा। अत: हमें किसी भी प्रकार का घमंड नहीं करना चाहिए।

भस्म शिव का प्रमुख वस्त्र है। शिव का पूरा शरीर ही भस्म से ढंका रहता है। संतों का भी एक मात्र वस्त्र भस्म ही है। अघोरी, सन्यासी और अन्य साधु भी अपने शरीर पर भस्म रमाते हैं। क्या यह सिर्फ आडंबर है या इसके पीछे कोई महत्वपूर्ण विज्ञान है। भस्म हमारे शरीर के लिए किस तरह फायदेमंद हो सकती है। भस्म की एक विशेषता होती है कि यह शरीर के रोम छिद्रों को बंद कर देती है। इसका मुख्य गुण है कि इसको शरीर पर लगाने से गर्मी में गर्मी और सर्दी में सर्दी नहीं लगती। भस्मी त्वचा संबंधी रोगों में भी दवा का काम करती है। भस्मी धारण करने वाले शिव यह संदेश भी देते हैं कि परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको ढ़ालना मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है।

इस संबंध में एक अन्य तर्क भी है कि शिवजी कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं, जहां का वातावरण अत्यंत ही ठंडा है और भस्म शरीर का आवरण का काम करती हैं। यह वस्त्रों की तरह ही उपयोगी होती है। भस्म बारिक लेकिन कठोर होती है जो हमारे शरीर की त्वचा के उन रोम छिद्रों को भर देती है जिससे सर्दी या गर्मी महसूस नहीं होती हैं। शिवजी का रहन-सहन सन्यासियों सा है। सन्यास का यही अर्थ है कि संसार से अलग प्रकृति के सानिध्य में रहना। संसारी चीजों को छोड़कर प्राकृतिक साधनों का उपयोग करना। ये भस्म उन्हीं प्राकृतिक साधनों में शामिल है।

शिव भक्तों के लिए शिवजी का हर एक रूप निराला है। कहते हैं भगवान शिव भोले हैं, क्योंकि वे अपने भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने वाले हैं। वे अपने भक्तों के समक्ष स्वयं प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद देते हैं एवं मन मुताबिक वरदान देते हैं। हिन्दू धर्म में शिव उपासना का विशेष महत्व है, कहते हैं किसी भी प्रकार की समस्या क्यों ना हो, शिवजी की मदद से सभी संकट दूर हो जाते हैं। शिवजी का जप करने से भक्त खुद में एक शक्ति को महसूस करता है। शायद इसी विश्वास के कारण भगवान शिव अपने भक्तों के बीच हर रूप में प्रसिद्ध हैं।फिर वह भोले बाबा का रूप हो या फिर शिव का रौद्र रूप। उनके भक्त शिव के हर रूप के सामने सिर झुकाकर उन्हें नमन करते हैं। कुछ समय पहले हमने एक ब्लॉग लिखा था, जिसमें यह प्रश्न उठाया गया था कि शिव भांग एवं धतूरे का सेवन क्यों करते हैं। शिव की जटाओं से गंगा क्यों बहती है? शिवजी गले में सर्प धारण क्यों करते हैं? इसी तरह से कई ऐसे सवाल हैं जो खुद में एक रहस्य हैं।

यूं तो शिव के हर रूप के पीछे कोई ना कोई रहस्य छिपा है, लेकिन इसी तरह का एक और सवाल भी उत्पन्न होता है। हिन्दू कथाओं के अनुसार कई जगह शिवजी को भस्म का प्रयोग करते हुए पाया गया है। वे अपने शरीर पर भस्म लगाते थे, ऐसा दावा किया जाता है। भस्म यानि कुछ जलाने के बाद बची हुई राख, लेकिन यह किसी धातु या लकड़ी को जलाकर बची हुई राख नहीं है। शिव जली हुई चिताओं के बाद बची हुई राख को अपने तन पर लगाते थे, लेकिन क्यों! इसका अर्थ पवित्रता में छिपा है, वह पवित्रता जिसे भगवान शिव ने एक मृत व्यक्ति की जली हुई चिता में खोजा है। जिसे अपने तन पर लगाकर वे उस पवित्रता को सम्मान देते हैं। कहते हैं शरीर पर भस्म लगाकर भगवान शिव खुद को मृत आत्मा से जोड़ते हैं। उनके अनुसार मरने के बाद मृत व्यक्ति को जलाने के पश्चात बची हुई राख में उसके जीवन का कोई कण शेष नहीं रहता। ना उसके दुख, ना सुख, ना कोई बुराई और ना ही उसकी कोई अच्छाई बचती है। इसलिए वह राख पवित्र है, उसमें किसी प्रकार का गुण-अवगुण नहीं है, ऐसी राख को भगवान शिव अपने तन पर लगाकर सम्मानित करते हैं। किंतु ना केवल भस्म के द्वारा वरन् ऐसे कई उदाहरण है जिसके जरिए भगवान शिव खुद में एवं मृत व्यक्ति में संबंध को दर्शाते हैं।

हिन्दू मान्यताओं में ब्रह्माजी को जहां सृष्टि का रचयिता कहा गया है वहीं विष्णुजी इस संसार को चलाने वाले यानि कि पालनहार माने गए हैं। लेकिन शिवजी संसार को नष्ट करने वाले हैं, यानि कि जन्म के बाद अंत दिखाने वाले हैं। इसलिए वे हमेशा श्मशान में बैठकर मृत्यु का इंतजार करते हैं। लेकिन भस्म और भगवान शिव का रिश्ता मात्र इतना ही नहीं है। इससे जुड़ी एक पौराणिक कहानी भी है, जो काफी हैरान कर देने वाली है

*भगवान शिव एवं उनकी पहली पत्नी सती के बारे में कौन नहीं जानता, खुद को अग्नि को समर्पित कर चुकी सती की मृत्यु की खबर जब भगवान शिव को मिली तो वे गुस्से में अपना मानसिक संतुलन खो बैठे थे। वे अपनी पत्नी के मृत शव को लेकर इधर उधर घूमने लगे, कभी आकाश में तो कभी धरती पर। जब श्रीहरि ने शिवजी के इस दुखद एवं पागलपन रवैया को देखा तो उन्होंने जल्द से जल्द कोई हल निकालने की कोशिश की। अंतत: उन्होंने भगवान शिव की पत्नी के मृत शरीर का स्पर्श कर इस शरीर को भस्म में बदल दिया। हाथों में केवल पत्नी की भस्म को देखकर शिवजी और भी परेशान हो गए, उन्हें लगा वे अपनी पत्नी को हमेशा के लिए खो चुके हैं। अपनी पत्नी से जुदाई का दर्द शिवजी बर्दाश्त नहीं पर पा रहे थे, लेकिन उनके हाथ में उस समय भस्म के अलावा और कुछ नहीं था। इसलिए उन्होंने उस भस्म को अपनी पत्नी की आखिरी निशानी मानते हुए अपने तन पर लगा लिया, ताकि सती भस्म के कणों के जरिए हमेशा उनके साथ ही रहें।

आचार्य प्रभात कुमार प्रिंस 

सिद्धान्त ज्योतिषाचार्य

सीतामढ़ी बिहार 

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आचार्य प्रभात :- पिप्पलाद

 महर्षि दधीचि पुत्र पिप्पलाद

श्मशान में जब महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार हो रहा था तो उनकी पत्नी अपने पति का वियोग सहन नहीं कर पायीं और पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में 3 वर्ष के बालक को रख स्वयम् चिता में बैठकर सती हो गयीं। इस प्रकार महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी का बलिदान हो गया किन्तु पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास से तड़प तड़प कर चिल्लाने लगा।  जब कोई वस्तु नहीं मिली तो कोटर में गिरे पीपल के गोदों(फल) को खाकर बड़ा होने लगा। कालान्तर में पीपल के पत्तों और फलों को खाकर बालक का जीवन येन केन प्रकारेण सुरक्षित रहा।    एक दिन देवर्षि नारद वहाँ से गुजरे। नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देखकर उसका परिचय पूंछा-  नारद- बालक तुम कौन हो ? बालक- यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ । नारद- तुम्हारे जनक कौन हैं ? बालक- यही तो मैं जानना चाहता हूँ ।     तब नारद ने ध्यान धर देखा।नारद ने आश्चर्यचकित हो बताया कि  हे बालक ! तुम महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो। तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी। नारद ने बताया कि तुम्हारे पिता दधीचि की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की वय में ही हो गयी थी।  बालक- मेरे पिता की अकाल मृत्यु का कारण क्या था ? नारद- तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा थी। बालक- मेरे ऊपर आयी विपत्ति का कारण क्या था ? नारद- शनिदेव की महादशा।    इतना बताकर देवर्षि नारद ने पीपल के पत्तों और गोदों को खाकर जीने वाले बालक का नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित किया। नारद के जाने के बाद बालक पिप्पलाद ने नारद के बताए अनुसार ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने जब बालक पिप्पलाद से वर मांगने को कहा तो पिप्पलाद ने अपनी दृष्टि मात्र से किसी भी वस्तु को जलाने की शक्ति माँगी।ब्रह्मा जी से वर्य मिलने पर सर्वप्रथम पिप्पलाद ने शनि देव का आह्वाहन कर अपने सम्मुख प्रस्तुत किया और सामने पाकर आँखे खोलकर भष्म करना शुरू कर दिया।शनिदेव सशरीर जलने लगे। ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया। सूर्यपुत्र शनि की रक्षा में सारे देव विफल हो गए। सूर्य भी अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र को जलता हुआ देखकर ब्रह्मा जी से बचाने हेतु विनय करने लगे।अन्ततः ब्रह्मा जी स्वयम् पिप्पलाद के सम्मुख पधारे और शनिदेव को छोड़ने की बात कही किन्तु पिप्पलाद तैयार नहीं हुए।ब्रह्मा जी ने एक के बदले दो वर्य मांगने की बात कही। तब पिप्पलाद ने खुश होकर निम्नवत दो वरदान मांगे-  1- जन्म से 5 वर्ष तक किसी भी बालक की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा।जिससे कोई और बालक मेरे जैसा अनाथ न हो।  2- मुझ अनाथ को शरण पीपल वृक्ष ने दी है। अतः जो भी व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व पीपल वृक्ष पर जल चढ़ाएगा उसपर शनि की महादशा का असर नहीं होगा।     ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह वरदान दिया।तब पिप्पलाद ने जलते हुए शनि को  अपने ब्रह्मदण्ड से उनके पैरों पर आघात करके उन्हें मुक्त कर दिया । जिससे शनिदेव के पैर क्षतिग्रस्त हो गए और वे पहले जैसी तेजी से चलने लायक नहीं रहे।अतः तभी से शनि "शनै:चरति य: शनैश्चर:" अर्थात जो धीरे चलता है वही शनैश्चर है, कहलाये और शनि आग में जलने के कारण काली काया वाले अंग भंग रूप में हो गए। सम्प्रति शनि की काली मूर्ति और पीपल वृक्ष की पूजा का यही धार्मिक हेतु है।आगे चलकर पिप्पलाद ने प्रश्न उपनिषद की रचना की,जो आज भी ज्ञान का वृहद भंडार है ।

               सनातन धर्म विजयते

            आचार्य प्रभात कुमार प्रिंस 


चौठचन्द्र {चौरचन} पूजा विधि मन्त्र और कथा सहित

चौठचन्द्र (चौरचन) पूजा विधि मन्त्र और कथा सहित   जय चौठचन्द्र भगवान🙏🏼🙏🏼 ============= भादव शुक्ल चतुर्थी पहिल साँझ व्रती स्नान कऽ ...