शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

पूजा के प्रकार

 पूजन के मुख्य छ: प्रकार है--


पंचोपचार (5 प्रकार)

दशोपचार (10 प्रकार)

षोडशोपचार (16 प्रकार)

द्वात्रिंशोपचार (32 प्रकार)

चतुषष्टिपचार (64 प्रकार)

एकोद्वात्रिंशोपचार (132 प्रकार)

मानस पूजा को शास्त्रों में सबसे शक्तिशाली पूजा माना गया है। 


स्नान - सर्वप्रथम स्वयं स्वच्छ जल से स्नान करें तथा एक काँस के पात्र में जल लावें ध्यान रहे बिना स्नान किये व्यक्तियों से स्पर्श न हो तथा पानी लाते समय चप्पल आदि न पहनें। और उसे भगवान के समक्ष रख दें।


पूजा की थाल - आचमनी पंचपात्र आदि एक थाली थाली काँस अथवा ताँबे की हो। में रखें तथा साँथ में पुष्प, अक्षत, बिल्वपत्र, धूप, दीप, नैवेद्य, चंदन आदि पूजा में उपयोगी वस्तुएँ रखें। इसे पूजा की थाली कहते हैं।


पवित्रीकरण - आसन में बैठ कर पवित्रीकरण करें, अपने तथा पूजन के थाल पर जल सिंचन करें तथा पवित्रीकरण श्लोक बोलें।


ध्यान - भगवान का ध्यान करें। गीताप्रेस गोरखपुर का नित्यकर्म पूजाप्रकाश नामक पुस्तक अति उपयोगी है।


दैनिक पूजा उपक्रम - क्रम निम्नांकित हैं--


ध्यान


आवहन


आसन


पाद्य


अर्घ्य


आचमनी


स्नान जल, दुग्ध, घृत, शर्करा, मधु, दधि, उष्ण जल।


पंचामृत स्नान दुग्ध, दधि, घृत (घी), मधु, शर्करा को एक साँथ मिलाकर उससे स्नान करावें।


शुद्धोदकस्नान शुद्ध जल से स्नान।


वस्त्र


चंदन


यज्ञोपवीत (जनेऊ)


पुष्प


दुर्वा गणेश जी में दूबी अर्पित करें।


तुलसी विष्णु में तुलसी।


शमी शमीपत्र।


अक्षत शिव में श्वेत अक्षत, देवी में रक्त (लाल) अक्षत, अन्य में पीत (पीला) अक्षत।


सुगंधिद्रव्य इत्र।


धूप


दीप


नैवेद्य प्रसाद।


ताम्बूल पान।


पुष्पांजलि मंत्रपुष्पांजलि।


प्रार्थना

महामृत्युंजय मंत्र

 महामृत्युंजय मंत्र के 8 विशेष प्रयोग

【 ज्योतिषाचार्य पं. प्रभात झा  】

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ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।

✍🏻मृत्युंजय का सीधा अर्थ है मृत्यु को भी विजय करने वाला ज्योतिषाचार्य पं. प्रभात झा जी ने बताया  कि महामृत्युञ्जय मंत्र भगवान रूद्र का एक सर्वशक्तिशाली और साक्षात् प्रभाव देने वाला सिद्ध मंत्र है और अधिकांशतः लोग इससे परिचित भी हैं ही, समान्यतया अच्छे स्वास्थ के लिए, असाध्य रोगों से मुक्ति के लिए और अकाल मृत्यु-भय से रक्षा के लिए महामृत्युंजय मंत्र जाप किया जाता है या कर्मकाण्डी ब्राह्मण से इसका अनुष्ठान कराया जाता है पर महामृत्युंजय मंत्र का प्रयोग न केवल अकाल मृत्यु से रक्षा के लिए बल्कि आपके जीवन की और भी बहुत सी बाधाओं से मुक्ति देने में महामृत्युंजय मंत्र का जाप अपना चमत्कारिक प्रभाव दिखाता है:-

*1:-* यदि आपका स्वास्थ समान्य से अधिक और हमेशा ही खराब रहता है तो नित्य महामृत्युंजय मंत्र का जाप करें अवश्य लाभ होगा।

*2:-* बीमारी या रोगों के कारण जब जीवन संकट वाली स्थिति आ जाये तो महामृत्युंजय मंत्र का जाप करें या अनुष्ठान कराएं।

*3:-* जिन लोगों के साथ बार बार एक्सीडेंट्स की स्थिति बनती रहती हो ऐसे लोगो को महामृत्युंजय मंत्र का नित्य जाप करना बहुत सकारात्मक परिवर्तन लाता है। 

*4:-* जिन लोगों को डर भय और फोबिया की समस्या हो ऐसे लोगों को महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना बहुत शुभ परिणाम देता है। 

*5:-* एक सफ़ेद कागज पर लाल पैन से महामृत्युंजय मंत्र लिखें एक दिन के लिए अपने पूजास्थल पर रखें और फिर हमेशा वाहन चलाते समय इसे अपने ऊपर वाले जेब में रखें दुर्घटनाओं से हमेशा आपकी रक्षा होगी।

*6:-* जिन लोगों की कुंडली में कालसर्प योग होने से जीवनं में संघर्ष रहता हो उनके लिए महामृत्युंजय  मंत्र का जाप अमृत-तुल्य होता है।

*7:-* कुंडली में चन्द्रमाँ पीड़ित या कमजोर होने पर उत्पन्न होने वाली मानसिक समस्याओं में भी महामृत्युंजय मंत्र का जाप बहुत शुभ परिणाम देता है। 

*8:-* महामृत्युंजय मंत्र की ध्वनि से घर से सभी "नकारात्मक" ऊर्जाएं दूर रहती हैं।

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✍🏻आचार्य:- पं. प्रभात झा , संपर्क सूत्र:- 9155657892 कुंडली परामर्श शुल्क 551/- रु.

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बुधवार, 24 फ़रवरी 2021

कामशास्त्र

सहवास के प्राचीन नियम, पालन करने से मिलते हैं कई फायदे

प्राचीन नियमों के अनुसार सहवास से वंशवृद्धि, मैत्रीलाभ, साहचर्य सुख, मानसिक रूप से परिपक्वता, दीर्घायु, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सुख की प्राप्ति हासिल की जा सकती है। यदि व्यक्ति नियमों में बंधकर सहवास करता है, तो वह संस्कारी होकर आपदाओं से बचा रहता है। पशुवत सहवास से वह अपना जीवन नष्ट कर लेता है। पुरातन काल में दंपति आज की तरह हर रात्रि को नहीं मिलते थे। उनका सहवास सिर्फ संतान प्राप्ति के उद्देश्य के लिए होता था। शुभ दिन और शुभ मुहुर्त के संभोग से वे योग्य संतान प्राप्त कर लेते थे। वर्तमान काल में युवा पीढ़ी उद्दंड और अनुशासनहीन है। कंडोम के दौर में किसी भी समय संभोग करके गर्भ धारण करके संतान पैदा कर लेती है।
  

पति और पत्नी के बीच सहवास भी रिश्तों को मजबूत बनाए रखने का एक आधार होता है, बशर्ते कि उसमें प्रेम हो, काम-वासना नहीं। हालांकि वर्तमान में ऐसा नहीं होता। इसका कारण है सहवास के प्राचीन नियमों की समझ का नहीं होना। आधुनिक युग में संस्कार तो समाप्त हो ही गए हैं, साथ ही व्यक्ति स्वार्थी अधिक हो चला है। आओ जानते हैं कि सहवास के वे कौन से नियम हैं जिन्हें जानकर लाभ उठाया जा सकता है और सुख को अधिक बढ़ाया जा सकता है।

 

1. पहला नियम : हमारे शरीर में 5 प्रकार की वायु रहती है। इनका नाम है- 1. व्यान, 2. समान, 3. अपान, 4. उदान और 5. प्राण। उक्त 5 में से एक अपान वायु का कार्य मल, मूत्र, शुक्र, गर्भ और आर्तव को बाहर निकालना है। इसमें जो शुक्र है वही वीर्य है अर्थात यह वायु संभोग से संबंध रखती है। जब इस वायु की गति में फर्क आता है या यह किसी भी प्रकार से दूषित हो जाती है तो मूत्राशय और गुदा संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं। इससे संभोग की शक्ति पर भी असर पड़ता है। अपान वायु माहवारी, प्रजनन और यहां तक कि संभोग को भी नियंत्रित करने का कारक है। अत: इस वायु को शुद्ध और गतिशील बनाए रखने के लिए आपको अपने उदर को सही रखना होगा और सही समय पर शौचादि से निवृत्त होना होगा।
 

2. दूसरा नियम : कामसूत्र के रचयिता आचार्य वात्‍स्‍यायन के अनुसार स्त्रियों को कामशास्त्र का ज्ञान होना बेहद जरूरी है, क्‍योंकि इस ज्ञान का प्रयोग पुरुषों से अधिक स्त्रियों के लिए जरूरी है। हालांकि दोनों को ही इसका भरपूर ज्ञान हो, तभी अच्छे सुख की प्राप्ति होती है। वात्‍स्‍यायन के अनुसार स्‍त्री को विवाह से पहले पिता के घर में और विवाह के पश्‍चात पति की अनुमति से काम की शिक्षा लेनी चाहिए। वात्‍स्‍यायन का मत है कि स्त्रियों को बिस्‍तर पर गणिका की तरह व्‍यवहार करना चाहिए। इससे दांपत्‍य जीवन में स्थिरता बनी रहती है और पति अन्‍य स्त्रियों की ओर आकर्षित नहीं हो पाता तथा पत्‍नी के साथ उसके मधुर संबंध बने रहते हैं। इसलिए स्त्रियों को यौनक्रिया का ज्ञान होना आवश्‍यक है ताकि वह काम कला में निपुण हो सके और पति को अपने प्रेमपाश में बांधकर रख सके।

आचार्य वात्‍स्‍यायन के अनुसार एक कन्‍या के लिए सहवास की शिक्षा देने वाले विश्‍वसनीय व्यक्ति हो सकते हैं- दाई, विश्वासपात्र सेविका की ऐसी कन्‍या, जो साथ में खेली हो और विवाहित होने के पश्‍चात पुरुष समागम से परिचित हो। विवाहिता सखी, हमउम्र मौसी या बड़ी बहन, अधेड़ या बुढ़िया दासी, बड़ी बहन, ननद या भाभी जिसे संभोग का आनंद प्राप्‍त हो चुका हो। उसका स्पष्ट बोलने और मधुर बोलने वाली होना जरूरी हो ताकि वह काम का सही-सही ज्ञान दे सके।


 
3. तीसरा नियम : शास्त्रों के अनुसार कुछ ऐसे दिन भी हैं जिस दिन पति-पत्नी को किसी भी रूप में शारीरिक संबंध स्थापित नहीं करने चाहिए, जैसे अमावस्या, पूर्णिमा, चतुर्थी, अष्टमी, रविवार, संक्रांति, संधिकाल, श्राद्ध पक्ष, नवरात्रि, श्रावण मास और ऋतुकाल आदि में स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे से दूर ही रहना चाहिए। इस नियम का पालन करने से घर में सुख, शांति, समृद्धि और आपसी प्रेम-सहयोग बना रहना है अन्यथा गृहकलह और धन की हानि के साथ ही व्यक्ति आकस्मिक घटनाओं को आमंत्रित कर लेता है।
 

4. चौथा नियम : रात्रि का पहला प्रहर रतिक्रिया के लिए उचित समय है। इस प्रहर में की गई रतिक्रिया के फलस्वरूप ऐसी संतान प्राप्त होती है, जो अपनी प्रवृत्ति एवं संभावनाओं में धार्मिक, सात्विक, अनुशासित, संस्कारवान, माता-पिता से प्रेम रखने वाली, धर्म का कार्य करने वाली, यशस्वी एवं आज्ञाकारी होती है। शिव का आशीर्वाद प्राप्त ऐसी संतान की लंबी आयु एवं भाग्य प्रबल होता है।
 
प्रथम प्रहर के बाद राक्षसगण पृथ्वीलोक के भ्रमण पर निकलते हैं। उसी दौरान जो रतिक्रिया की गई हो, उससे उत्पन्न होने वाली संतान में राक्षसों के ही समान गुण आने की प्रबल आशंका होती है। पहले प्रहर के बाद रतिक्रिया इसलिए भी अशुभकारी है, क्योंकि ऐसा करने से शरीर को कई रोग घेर लेते हैं। व्यक्ति अनिद्रा, मानसिक क्लेश, थकान का शिकार हो सकता है एवं माना जाता है कि भाग्य भी उससे रूठ जाता है।
 

5. पांचवां नियम : यदि कोई संतान के रूप में पुत्रियों के बाद पुत्र चाहता है तो उसे महर्षि वात्स्यायन द्वारा प्रकट किए गए प्राचीन नियमों को समझना चाहिए। इस नियम के अनुसार स्त्री को हमेशा अपने पति के बाईं ओर सोना चाहिए। कुछ देर बाईं करवट लेटने से दायां स्वर और दाहिनी करवट लेटने से बायां स्वर चालू हो जाता है। ऐसे में दाईं ओर लेटने से पुरुष का दायां स्वर चलने लगेगा और बाईं ओर लेटी हुई स्त्री का बायां स्वर चलने लगता है। जब ऐसा होने लगे तब संभोग करना चाहिए। इस स्थिति में गर्भाधान हो जाता है।
 

6. छठा नियम : आयुर्वेद के अनुसार स्त्री के मासिक धर्म के दौरान अथवा किसी रोग, संक्रमण होने पर सेक्स नहीं करना चाहिए। यदि आप खुद को संक्रमण या जीवाणुओं से बचाना चाहते हैं, तो सहवास के पहले और बाद में कुछ स्वच्छता नियमों का पालन करना चाहिए। जननांगों पर किसी भी तरह का घाव या दाने हो तो सहवास न करें। सहवास से पहले शौचादि से निवृत्त हो लें। सहवास के बाद जननांगों को अच्छे से साफ करें या स्नान करें। प्राचीनकाल में सहवास से पहले और बाद में स्नान किए जाने का नियम था।

 
7. सातवां नियम : मित्रवत व्यवहार न होने पर, काम की इच्छा न होने पर, रोग या शोक होने पर भी संभोग नहीं करना चाहिए। इसका मतलब यह कि यदि आपकी पत्नी या पति की इच्छा नहीं है, किसी दिन व्यवहार मित्रवत नहीं है, मन उदास या खिन्न है तो ऐसी स्थिति में यह कार्य नहीं करना चाहिए। यदि मन में या घर में किसी भी प्रकार का शोक हो तब भी संभोग नहीं करना चाहिए। मन:स्थिति अच्छी हो तभी करना चाहिए।
 

8. आठवां नियम : पवित्र माने जाने वाले वृक्षों के नीचे, सार्वजनिक स्थानों, चौराहों, उद्यान, श्मशान घाट, वध स्थल, चिकित्सालय, औषधालय, मंदिर, ब्राह्मण, गुरु और अध्यापक के निवास स्थान में सेक्स करने की मनाही है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो उसको इसका परिणाम भी भुगतना ही होता है।
 

9. नौवां नियम : बदसूरत, दुश्चरित्र, अशिष्ट व्यवहार करने वाली तथा अकुलीन, परस्त्री या परपुरुष के साथ सहवास नहीं करना चाहिए अर्थात व्यक्ति को अपनी पत्नी या स्त्री को अपने पति के साथ ही सहवास करना चाहिए। नियमविरुद्ध जो ऐसा कार्य करना है, वह बाद में जीवन के किसी भी मोड़ पर पछताता है। उसके अनैतिक कृत्य को देखने वाला ऊपर बैठा है।
 

10. दसवां नियम : गर्भकाल के दौरान दंपति को सहवास नहीं करना चाहिए। गर्भकाल में संभोगरत होते हैं, तो भावी संतान के अपंग और रोगी पैदा होने का खतरा बना रहता है। हालांकि कुछ शास्त्रों के अनुसार 2 या 3 माह तक सहवास किए जाने का उल्लेख मिलता है लेकिन गर्भ ठहरने के बाद सहवास नहीं किया जाए तो ही उचित है।
 

11. ग्यारहवां नियम : शास्त्रसम्मत है कि सुंदर, दीर्घायु और स्वस्थ संतान के लिए गडांत, ग्रहण, सूर्योदय एवं सूर्यास्तकाल, निधन नक्षत्र, रिक्ता तिथि, दिवाकाल, भद्रा, पर्वकाल, अमावस्या, श्राद्ध के दिन, गंड तिथि, गंड नक्षत्र तथा 8वें चन्द्रमा का त्याग करके शुभ मुहुर्त में संभोग करना चाहिए। गर्भाधान के समय गोचर में पति/पत्नी के केंद्र एवं त्रिकोण में शुभ ग्रह हों, तीसरे, छठे ग्यारहवें घरों में पाप ग्रह हों, लग्न पर मंगल, गुरु इत्यादि शुभकारक ग्रहों की दॄष्टि हो और मासिक धर्म से सम रात्रि हो, उस समय सात्विक विचारपूर्वक योग्य पुत्र की कामना से यदि रतिक्रिया की जाए तो निश्चित ही योग्य पुत्र की प्राप्ति होती है। इस समय में पुरुष का दायां एवं स्त्री का बायां स्वर ही चलना चाहिए, यह अत्यंत अचूक उपाय है। कारण यह है कि पुरुष का जब दाहिना स्वर चलता है तब उसका दाहिना अंडकोश अधिक मात्रा में शुक्राणुओं का विसर्जन करता है जिससे कि अधिक मात्रा में पुल्लिंग शुक्राणु निकलते हैं अत: पुत्र ही उत्पन्न होता है।
 

 12. बारहवां नियम : मासिक धर्म शुरू होने के प्रथम 4 दिवसों में संभोग से पुरुष रुग्णता को प्राप्त होता है। पांचवीं रात्रि में संभोग से कन्या, छठी रात्रि में पुत्र, सातवीं रात्रि में बंध्या पुत्री, आठवीं रात्रि के संभोग से ऐश्वर्यशाली पुत्र, नौवीं रात्रि में ऐश्वर्यशालिनी पुत्री, दसवीं रात्रि के संभोग से अतिश्रेष्ठ पुत्र, ग्यारहवीं रात्रि के संभोग से सुंदर पर संदिग्ध आचरण वाली कन्या, बारहवीं रात्रि से श्रेष्ठ और गुणवान पुत्र, तेरहवीं रात्रि में चिंतावर्धक कन्या एवं चौदहवीं रात्रि के संभोग से सद्गुणी और बलवान पुत्र की प्राप्ति होती है। पंद्रहवीं रात्रि के संभोग से लक्ष्मीस्वरूपा पुत्री और सोलहवीं रात्रि के संभोग से गर्भाधान होने पर सर्वज्ञ पुत्र संतान की प्राप्ति होती है। इसके बाद की अक्सर गर्भ नहीं ठहरता।
                          ।।धन्यवाद ।।

उपनयन के महत्व

 

उपनयन-जनेऊ केर महत्व आ मिथिलाक अनुपम संस्कार पद्धति

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जनेऊ केर महत
 उपनयन में चरखा कटबाक सूत काटि जनेऊ बनेबाक उपक्रम केर दृश्य देखा रहल य। लेकिन आब ई सब विध-व्यवहार आ शुद्धताक संस्कार हम सब छोड़ि रहल छी। हम सब मशीनक बनल धागा सँ जनेऊ नाम लेल तैयार कयल पहिरतो छी, कतेको लोक सेहो छोड़ि देलहुँ….!
 
जनेऊ संस्कार केर अर्थ मोट मे आश्रम परिवर्तन होइत छैक। बाल्यकाल सँ ब्रह्मचर्य आश्रम मे प्रवेशक आ वेदारम्भ करबाक विशिष्ट आध्यात्म एहि संस्कार जेकरा हम सब उपनयन सेहो कहैत छियैक ताहि मे निहित छैक। मात्र एतबे आध्यात्म केर परिपूर्त्ति वास्ते अनेकानेक कर्मकांडीय विधि-व्यवहार मिथिला मे प्रचलित अछि। उद्योग, बँसकट्टी, मड़बबन्ही, चरखकट्टी, यज्ञ हेतु विभिन्न सामग्री जुटायब, पुनः वैदिक यज्ञारम्भ लेल आचार्य आ ब्रह्मा आदिक संग बरुआ सहित मड़बा पर हवनादि करैत मंत्र ग्रहण करब, जनेऊ धारण करब आर पुनः भिक्षा आदिक मांग करैत सविध मुण्डन आ पवित्र जल सँ स्नान कय नव-वस्त्र आदि धारण कय चुमाउन करैत दुर्वाक्षत सँ जेठजनक आशीर्वाद लैत ब्रह्मचर्याश्रम मे प्रवेश करैत वेद पढबाक अधिकारी बनि ओहि दिशा मे बढब, यैह होइत छैक ‘उपनयन’ संस्कार, जेकर आरो कय गोट नाम सँ विभिन्न स्थान पर जनेऊ पहिराओल जाइत छैक।
 
जनेऊ केँ उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र सेहो कहल जाइछ। जनेऊ धारण करबाक परम्परा बहुते प्राचीन छैक। वेद मे जनेऊ धारण करबाक लेल कहल गेल छैक। सूत सँ बनल ओ पवित्र धागा जेकरा यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बायाँ कंधाक ऊपर तथा दाहिना हाथक नीचाँ सँ पहिरैत छथि, यज्ञ द्वारा संस्कार कयल गेल जनेऊ या यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र केँ विशेष विधि सँ ग्रन्थित कय केँ बनायल जाइछ। एहि मे सात गोट ग्रन्थि लगायल जाइत छैक। ब्राम्हणक यज्ञोपवीत मे ब्रह्मग्रंथि होइत छैक। तीन सूत्र वला दुइ गोट यानी छः तानी जाहि मे तीन अथवा पाँच परवल (प्रवर रूपी बंधन – ब्रह्मग्रन्थ) सहितक एहि यज्ञोपवीत केँ गुरु दीक्षा केर बाद हमेशा धारण कयल जाइछ। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश केर प्रतीक होइत छैक। अपवित्र भेला पर यज्ञोपवीत बदैल लेल जाइछ। बिना यज्ञोपवीत धारण कयने अन्न-जल ग्रहण नहि करबाक चाही, सेहो कहल जाइछ।
 
‘उपनयन’ केर अर्थ होइछ ‘समीप अननाय’। यानी ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान केर समीप अननाय। हिन्दू धर्म केर २४ संस्कार मे सँ एक ‘उपनयन संस्कार’ केर अंतर्गत जनेऊ पहिरल जाइछ। यज्ञोपवीत धारण करयवला व्यक्ति केँ सब नियम केर पालन करब अनिवार्य छैक, जेना नित्य संध्या, गायत्री जप, शौच करबाक समय जनेऊ कान (गंगाक्षेत्र) मे राखिकय प्रक्षालन लेल उचित जल सहित शौचालय गमन करब, आदि। जनेऊ केँ मूत्र विसर्जन वा मल विसर्जन करबाक समय मे कान पर चढ़ाकय दु सँ तीन बेर बान्हल जाइछ, कहल जाइछ जे जनेऊ धारण करबाक बहुत रास फायदा होइत छैक जाहि मे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रेन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय केर रोग सहित अन्य संक्रामक रोग नहि होइत छैक।
 
यज्ञोपवीत धारण करबाक मन्त्र छैक –
 
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥
 
एहि मे सेहो वाजस्नेयी आ छंदोग सम्बन्धी किछु फरक मंत्र छैक जे एतय उल्लेख नहि कय रहल छी।
 
आइ लोक शहरी परिवेश मे सब काज करय लागल अछि। सुविधाक नाम पर अशुद्ध आचरण करब कतहु न कतहु नीक संकेत नहि मानल जा सकैछ। शुद्धता मे जे संस्कार आ सभ्यताक पृष्ठपोषण छैक ताहि सँ आगामी पीढी लेल सेहो कल्याणक मार्ग प्रशस्त करब। उपनयन मे किछु व्यवहार एहेन छैक जाहि मे कुल-देवताक सान्निध्यक बड पैघ महत्व छैक। मातृका पूजन, नन्दीमुख श्राद्ध, व गोटेक कर्मकाण्डीय व्यवहार जे उपनयन मे निर्दिष्ट अछि ताहि मे गाम-घर बेसी महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करैत अछि। व्यवहार मे शुद्धता लेल उचित वातावरणक संग सब काज अनुभवी समाजक संग बड़ा आराम सँ पूरा भऽ जाइछ। ताहि हेतु विशेष रूप सँ मैथिल ब्राह्मण समुदाय केँ एहि महत्वपूर्ण यज्ञक आयोजन सदिखन गाम-घर मे आयोजित करबाक चाही। एहि मे संछेपीकरण सँ भविष्यक पीढी केँ आर बेसी विकृति अपनेबाक दिशा मे डेग नहि बढाबी, ई चेतना हो, ताहि लेल एहि लेख केँ एतय प्रकाशित कयल गेल अछि।
हरिः हरः!!
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आचार्य प्रभात झा
सम्पर्क नं•:- 9155657892

चौठचन्द्र {चौरचन} पूजा विधि मन्त्र और कथा सहित

चौठचन्द्र (चौरचन) पूजा विधि मन्त्र और कथा सहित   जय चौठचन्द्र भगवान🙏🏼🙏🏼 ============= भादव शुक्ल चतुर्थी पहिल साँझ व्रती स्नान कऽ ...