3. तीसरा नियम : शास्त्रों के अनुसार कुछ ऐसे दिन भी हैं जिस दिन पति-पत्नी को किसी भी रूप में शारीरिक संबंध स्थापित नहीं करने चाहिए, जैसे अमावस्या, पूर्णिमा, चतुर्थी, अष्टमी, रविवार, संक्रांति, संधिकाल, श्राद्ध पक्ष, नवरात्रि, श्रावण मास और ऋतुकाल आदि में स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे से दूर ही रहना चाहिए। इस नियम का पालन करने से घर में सुख, शांति, समृद्धि और आपसी प्रेम-सहयोग बना रहना है अन्यथा गृहकलह और धन की हानि के साथ ही व्यक्ति आकस्मिक घटनाओं को आमंत्रित कर लेता है।
4. चौथा नियम : रात्रि का पहला प्रहर रतिक्रिया के लिए उचित समय है। इस प्रहर में की गई रतिक्रिया के फलस्वरूप ऐसी संतान प्राप्त होती है, जो अपनी प्रवृत्ति एवं संभावनाओं में धार्मिक, सात्विक, अनुशासित, संस्कारवान, माता-पिता से प्रेम रखने वाली, धर्म का कार्य करने वाली, यशस्वी एवं आज्ञाकारी होती है। शिव का आशीर्वाद प्राप्त ऐसी संतान की लंबी आयु एवं भाग्य प्रबल होता है।
प्रथम प्रहर के बाद राक्षसगण पृथ्वीलोक के भ्रमण पर निकलते हैं। उसी दौरान जो रतिक्रिया की गई हो, उससे उत्पन्न होने वाली संतान में राक्षसों के ही समान गुण आने की प्रबल आशंका होती है। पहले प्रहर के बाद रतिक्रिया इसलिए भी अशुभकारी है, क्योंकि ऐसा करने से शरीर को कई रोग घेर लेते हैं। व्यक्ति अनिद्रा, मानसिक क्लेश, थकान का शिकार हो सकता है एवं माना जाता है कि भाग्य भी उससे रूठ जाता है।
5. पांचवां नियम : यदि कोई संतान के रूप में पुत्रियों के बाद पुत्र चाहता है तो उसे महर्षि वात्स्यायन द्वारा प्रकट किए गए प्राचीन नियमों को समझना चाहिए। इस नियम के अनुसार स्त्री को हमेशा अपने पति के बाईं ओर सोना चाहिए। कुछ देर बाईं करवट लेटने से दायां स्वर और दाहिनी करवट लेटने से बायां स्वर चालू हो जाता है। ऐसे में दाईं ओर लेटने से पुरुष का दायां स्वर चलने लगेगा और बाईं ओर लेटी हुई स्त्री का बायां स्वर चलने लगता है। जब ऐसा होने लगे तब संभोग करना चाहिए। इस स्थिति में गर्भाधान हो जाता है।
6. छठा नियम : आयुर्वेद के अनुसार स्त्री के मासिक धर्म के दौरान अथवा किसी रोग, संक्रमण होने पर सेक्स नहीं करना चाहिए। यदि आप खुद को संक्रमण या जीवाणुओं से बचाना चाहते हैं, तो सहवास के पहले और बाद में कुछ स्वच्छता नियमों का पालन करना चाहिए। जननांगों पर किसी भी तरह का घाव या दाने हो तो सहवास न करें। सहवास से पहले शौचादि से निवृत्त हो लें। सहवास के बाद जननांगों को अच्छे से साफ करें या स्नान करें। प्राचीनकाल में सहवास से पहले और बाद में स्नान किए जाने का नियम था।
7. सातवां नियम : मित्रवत व्यवहार न होने पर, काम की इच्छा न होने पर, रोग या शोक होने पर भी संभोग नहीं करना चाहिए। इसका मतलब यह कि यदि आपकी पत्नी या पति की इच्छा नहीं है, किसी दिन व्यवहार मित्रवत नहीं है, मन उदास या खिन्न है तो ऐसी स्थिति में यह कार्य नहीं करना चाहिए। यदि मन में या घर में किसी भी प्रकार का शोक हो तब भी संभोग नहीं करना चाहिए। मन:स्थिति अच्छी हो तभी करना चाहिए।
8. आठवां नियम : पवित्र माने जाने वाले वृक्षों के नीचे, सार्वजनिक स्थानों, चौराहों, उद्यान, श्मशान घाट, वध स्थल, चिकित्सालय, औषधालय, मंदिर, ब्राह्मण, गुरु और अध्यापक के निवास स्थान में सेक्स करने की मनाही है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो उसको इसका परिणाम भी भुगतना ही होता है।
9. नौवां नियम : बदसूरत, दुश्चरित्र, अशिष्ट व्यवहार करने वाली तथा अकुलीन, परस्त्री या परपुरुष के साथ सहवास नहीं करना चाहिए अर्थात व्यक्ति को अपनी पत्नी या स्त्री को अपने पति के साथ ही सहवास करना चाहिए। नियमविरुद्ध जो ऐसा कार्य करना है, वह बाद में जीवन के किसी भी मोड़ पर पछताता है। उसके अनैतिक कृत्य को देखने वाला ऊपर बैठा है।
10. दसवां नियम : गर्भकाल के दौरान दंपति को सहवास नहीं करना चाहिए। गर्भकाल में संभोगरत होते हैं, तो भावी संतान के अपंग और रोगी पैदा होने का खतरा बना रहता है। हालांकि कुछ शास्त्रों के अनुसार 2 या 3 माह तक सहवास किए जाने का उल्लेख मिलता है लेकिन गर्भ ठहरने के बाद सहवास नहीं किया जाए तो ही उचित है।
11. ग्यारहवां नियम : शास्त्रसम्मत है कि सुंदर, दीर्घायु और स्वस्थ संतान के लिए गडांत, ग्रहण, सूर्योदय एवं सूर्यास्तकाल, निधन नक्षत्र, रिक्ता तिथि, दिवाकाल, भद्रा, पर्वकाल, अमावस्या, श्राद्ध के दिन, गंड तिथि, गंड नक्षत्र तथा 8वें चन्द्रमा का त्याग करके शुभ मुहुर्त में संभोग करना चाहिए। गर्भाधान के समय गोचर में पति/पत्नी के केंद्र एवं त्रिकोण में शुभ ग्रह हों, तीसरे, छठे ग्यारहवें घरों में पाप ग्रह हों, लग्न पर मंगल, गुरु इत्यादि शुभकारक ग्रहों की दॄष्टि हो और मासिक धर्म से सम रात्रि हो, उस समय सात्विक विचारपूर्वक योग्य पुत्र की कामना से यदि रतिक्रिया की जाए तो निश्चित ही योग्य पुत्र की प्राप्ति होती है। इस समय में पुरुष का दायां एवं स्त्री का बायां स्वर ही चलना चाहिए, यह अत्यंत अचूक उपाय है। कारण यह है कि पुरुष का जब दाहिना स्वर चलता है तब उसका दाहिना अंडकोश अधिक मात्रा में शुक्राणुओं का विसर्जन करता है जिससे कि अधिक मात्रा में पुल्लिंग शुक्राणु निकलते हैं अत: पुत्र ही उत्पन्न होता है।
12. बारहवां नियम : मासिक धर्म शुरू होने के प्रथम 4 दिवसों में संभोग से पुरुष रुग्णता को प्राप्त होता है। पांचवीं रात्रि में संभोग से कन्या, छठी रात्रि में पुत्र, सातवीं रात्रि में बंध्या पुत्री, आठवीं रात्रि के संभोग से ऐश्वर्यशाली पुत्र, नौवीं रात्रि में ऐश्वर्यशालिनी पुत्री, दसवीं रात्रि के संभोग से अतिश्रेष्ठ पुत्र, ग्यारहवीं रात्रि के संभोग से सुंदर पर संदिग्ध आचरण वाली कन्या, बारहवीं रात्रि से श्रेष्ठ और गुणवान पुत्र, तेरहवीं रात्रि में चिंतावर्धक कन्या एवं चौदहवीं रात्रि के संभोग से सद्गुणी और बलवान पुत्र की प्राप्ति होती है। पंद्रहवीं रात्रि के संभोग से लक्ष्मीस्वरूपा पुत्री और सोलहवीं रात्रि के संभोग से गर्भाधान होने पर सर्वज्ञ पुत्र संतान की प्राप्ति होती है। इसके बाद की अक्सर गर्भ नहीं ठहरता।
।।धन्यवाद ।।